खेल कठपुतलियों वाला
कठपुतली का अपना कोई कौशल नहीं होता, सारा कौशल उन ऊंगलियों का है जो उसे नचा रही हैं। कौशल उस स्क्रिप्ट का है जो बाजीगर के संवादों_गीतों में आ रही है। कौशल उन दर्शकों का भी है, जो बड़े मनोयोग से कठपुतलियों का खेल देख रहे हैं। पूरा सिनेमाई मामला है भाई!
हीरो-हीरोईनी कठपुतली की तरह हैं मगर नाम-प्रतिष्ठा स्टार-वेल्यू सारी उनको मिल जाती है, और संस्कृति विरुद्ध घटना यह होती है कि कठपुतलियां इतराने लगती हैं। इधर यह आलेख बनते समय एक बड़ी कठपुतली बंगाल के राजनैतिक परिदृश्य को आन्दोलित किए हुए है। मुख्यमन्त्री होकर धरने पर जा बैठी। अब कठपुतली की जिद्द देखिए कि उन ऊंगलियों की बात भी नहीं मान रही, जो संविधान_सम्मत सत्ताएं है!
न चुनाव आयोग, न सेना, न सुरक्षा एजेंसियां और न ही न्यायपालिका। इस कारण दर्शक भी बैचेन हैं कि यह क्या ‘खेला’ हुआ?
वैसे तुष्टिकरण का आरोप तो चुनाव आयोग पर भी बनता है। यह कठपुतली खेल बिगाड़ रही है तो झलाए बाजीगर ने खेल की दूसरी कठपुतलियों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया?
अंग्रेज किया करते थे ऐसा; वही काँग्रेस कल्चर के रास्ते अनेक बाजीगरों ने सीख लिया!
दर्शक हँस-हँस के लोटपोट हैं बच्चे अपनी माताओं का मोबाईल चुराकर ‘दीदी ओ दीदी’ कहते मूवी सेल्फ़ियां बना रहे हैं। खेल का सारा दारोमदार अब बाजीगरों के हाथ से निकलकर जन-गण-मन के हाथ में आ गया। जनता को जनार्दन कहा गया है ना? अरे यार, जनार्दन=भगवान होता है, मोदी नहीं!
अब यह मुस्कुराता मोदी क्या चीज है, आप ही बताओ यार?