सांस्कृतिक विडम्बना ; लक्ष्मी के समक्ष नत हुई शारदा
हाँ, माता सरस्वती का महत्व और गरिमा आज लोप है। सरस्वती का आराधक शिक्षक, सारी प्रतिभाएं और साधुवर्ग अपनी सारी शक्ति धन संग्रह या लक्ष्मी की परिक्रमा में लगे हैं। तभी तो बच्चा बच्चा पूजा की थाली घुमाकर सबके साथ सुर में सुर मिलाकर गाता है – ‘कर न सके सोई कर ले, मन नहीं घबराता। ऊं जय लक्ष्मी माता’। सरस्वती की उपेक्षा/अपमान इससे ज्यादा और क्या होगा कि देश का मुख्य समाज सांस्कृतिक पुरोधा घोर अनैतिक कामना में लक्ष्मी माता का सहारा ले ले। इसका दुष्परिणाम भी व्यापक स्तर भोगता है जन-गण मन। गहन शोध का विषय है, साधक इस विषय पर पूरी पुस्तक लिखने का मन रखता है। यहाँ इतनी बात तो कोई भी समझ सकता कि माता सरस्वती का वाहन राजहंस सिर्फ़ मोती चुगता है; तभी शारदा का विशाल भारतवर्ष में द्रुत-निर्बाध भ्रमण हो सकता है। सरस्वती कला की देवी हैं उनके प्रभाव से नाना कलाएं, उद्योग धंधे, मानव हित में नई नई शोध प्रेरित-संचालित होती है और समाज में मानवता का स्तर ऊंचा होता है। विष्णु अर्थात समाज का विवेक अगर सो जाए तो माता लक्ष्मी उनकी पद-सेवा छोड़कर आम आदमी का मन पढने निकल पड़ती है। लक्ष्मी का वाहन उलूक होता है जिसे सत्य-सूर्य के दर्शन की पात्रता नहीं होती। सारा निशाचरी समाज माता लक्ष्मी की पूजा आराधना करता है। लक्ष्मी के वैभव-सौन्दर्य के प्रभाव में आना सरल है, और लक्ष्मी-पुत्र शीघ्र ‘लक्ष्मीपति’ बनने की कोशिश करता है। मालिक बनकर धन पर काबिज हो जाता है। लक्ष्मी अपनी तारीफ़ से खुश होती है, और इस धकमपेल में शारदा और राजहंस उपेक्षित हो जाते हैं। अब तो शारदा अपने वाहन के आहार के लिए इन नव-लक्ष्मीपतियों के सामने नत-मस्तक और करबद्ध होकर मांगने को विवश हुई। सोया है जन-गण का विवेक। कौन ध्यान दे कि शारदा का वीणा-वादन बन्द है। मानवता के हित में नई शोध, तप और साधनाएं बन्द हैं। समाज अशान्त है। किसी को सन्तोष नहीं होता; सब ज्यादा से ज्यादा अर्थोपार्जन में लगे हैं बीमारियां, बैचेनी, भावनात्मक उलझनें झगड़े, हिंसा और आत्महत्याएं आदि बढ रहे हैं, क्योंकि शारदा ने अपनी गरिमा-मर्यादा भूलकर लक्ष्मी की अधीनता स्वीकार ली।
साधक की शोध-मर्यादा यह है कि वह अर्थ साधन के लिए अपने सुपुत्र के सामने भी करबद्ध होकर मांगे नहीं, बिना मांगे जो उपलब्ध है उसीसे शोधरत रहे; यही साधना है, साधक की यही जिम्मेदारी है। शर्मिन्दा है साधक कि एक-डेढ मिनट की चूक हो गई, और साधक की शोध-वृत्ति ट्ठप हुई। साधना-च्युत होने का अपराध इससे भी बड़े दण्ड के लायक है; साधक हर सजा के लिए तैयार है।